ग़ज़ल 22
कभी सब छीन लेता हूँ कभी नेमत लुटाता हूँ
मुझे सब वक़्त कहते हैं मैं उँगली पर नचाता हूँ
कोई मुट्ठी में जकड़े तो फिसल जाऊँ मैं पारे सा
ज़माने में भला मैं कब किसी के हाथ आता हूँ
न मैं काबे में रहता हूँ, न काशी धाम है मेरा
दिलों में नेक बंदे के मैं अपना घर बसाता हूँ
अकेला छोड़ कर मुझ को यकायक चल दिए सारे
मगर रब आ ही जाता है उसे जब भी बुलाता हूँ
बिछड़ जाऊँ अगर तुम से अंधेरा छा ही जाएगा
मगर नूर-ए-मुहब्बत से मैं जुल्मत को मिटाता हूँ
क़सम खा कर मुकर जाना तेरी आदत पुरानी है
क़सम से जब क़सम खाऊँ मैं शिद्दत से निभाता हूँ
ये सूरज चाँद की यारी बड़ी अद्भुत पहेली है
कहें दोनों ही आपस में कि तुम आओ मैं जाता हूँ