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24 Jun 2019 · 1 min read

ग़ज़ल

ज़ख़्म दिल के बहुत ही गहरे हैं
हाँ मगर ये बड़े सुनहरे हैं

ये निशानी हैं मेरे दिलबर की
साँस बन कर जो मुझमें ठहरे हैं

देख कर रंग ये गुमां होता
जैसे चेहरे पे और चेहरे हैं

शक़्ल-ए-इश्क़ में ख़ुदा है जब
क्यों मुहब्बत पे इतने पहरे हैं

शह उसी की है मात भी उसकी
खेल के हम सभी तो मोहरे हैं

लील जाता है तूफ़ां क़श्ती को
हम समुन्दर में जब भी उतरे हैं

सुन के कर देते अनसुनी “प्रीतम”
ये समझना नहीं के बहरे हैं

प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)

1 Like · 238 Views
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