ग़ज़ल
ज़ख़्म दिल के बहुत ही गहरे हैं
हाँ मगर ये बड़े सुनहरे हैं
ये निशानी हैं मेरे दिलबर की
साँस बन कर जो मुझमें ठहरे हैं
देख कर रंग ये गुमां होता
जैसे चेहरे पे और चेहरे हैं
शक़्ल-ए-इश्क़ में ख़ुदा है जब
क्यों मुहब्बत पे इतने पहरे हैं
शह उसी की है मात भी उसकी
खेल के हम सभी तो मोहरे हैं
लील जाता है तूफ़ां क़श्ती को
हम समुन्दर में जब भी उतरे हैं
सुन के कर देते अनसुनी “प्रीतम”
ये समझना नहीं के बहरे हैं
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)