ग़ज़ल
सबक़
. ——-ग़ज़ल—–
कुछ इस तरह से आज जहां बे वफ़ा हुआ
भाई ही अपने भाई का दुश्मन बना हुआ
रोया था ज़ार ज़ार ये दिल मेरा उस घड़ी
जब जां नशींन मुझसे वो मेरा जुदा हुआ
उसकी ज़ुबांदराज़ी मुझे छलनी कर रही
कल का परिंदा आज का इक बोलता हुआ
मैं बिक गया तो ग़म नहीं ईमां दुरुस्त है
बाजार में रिश्तों के ये सौदा ख़रा हुआ
जिसके लिए हजारों सितम हँस के सह गये
कल मैं बड़ा था देखिए अब वो बड़ा हुआ
सच्चाई को समझ न सका आज ये जहां
आँखों पे उसके झूठ का पर्दा पड़ा हुआ
“प्रीतम” वो एक रोज़ तो पछताएगा ज़रूर
अपनों को छोड़ गैरों से जो है मिला हुआ
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)