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10 Jun 2023 · 1 min read

ग़ज़ल 18

होश आया था उम्र ढलते ही
रह गये लोग हाथ मलते ही

ज़िन्दगी तो फ़िसल गई यारों
रह गया काम टलते टलते ही

ये अनोखा निज़ाम-ए-आलम है
रात आती है दिन के ढलते ही

ये हक़ीक़त का शोर कैसा है
खुल गई नींद ख़्वाब पलते ही

वो कहीं जब नज़र नहीं आया
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही

माल-ओ-ज़र की ज़मीन चिकनी थी
गिर गए फिर से हम सँभलते ही

गर्मी-ए-लम्स मिल गया हमको
आज रिश्तों की बर्फ़ गलते ही

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