ग़ज़ल 18
होश आया था उम्र ढलते ही
रह गये लोग हाथ मलते ही
ज़िन्दगी तो फ़िसल गई यारों
रह गया काम टलते टलते ही
ये अनोखा निज़ाम-ए-आलम है
रात आती है दिन के ढलते ही
ये हक़ीक़त का शोर कैसा है
खुल गई नींद ख़्वाब पलते ही
वो कहीं जब नज़र नहीं आया
बुझ गया दिल चराग़ जलते ही
माल-ओ-ज़र की ज़मीन चिकनी थी
गिर गए फिर से हम सँभलते ही
गर्मी-ए-लम्स मिल गया हमको
आज रिश्तों की बर्फ़ गलते ही