ग़ज़ल
——–ग़ज़ल——
[3/9, 6:57 PM] प्रीतम राठौर भिनगाई:
न कोई शहर में अपना दिखाई देता है
हरेक शख़्स पराया दिखाई देता है
करूँ भी किससे ये ज़िन्दादिली की मैं बातें
जिसे भी देखो वो मुर्दा दिखाई देता है
कली है फूल हैं भौंरे हैं तितलियाँ लेकिन
चमन हरा था जो सहरा दिखाई देता है
ये कैसे बहने लगी धार उल्टी गंगा की
जो बाप बच्चों को बिगड़ा दिखाई देता है
सफेद बाल किए लाख ग़म उठा कर के
जवान कल का जो बूढ़ा दिखाई देता है
कोई भी क़त्ल हो लेकिन यहाँ अदालत में
हमारे नाम का पर्चा दिखाई देता है
छुपाता आइना भी अब आँख इस तरह मुझसे
कि अपना अक़्स भी उल्टा दिखाई देता है
सभी हैं ओढ़े हुए झूठ की रिदा “प्रीतम”
जहां में कोई न सच्चा दिखाई देता है
प्रीतम राठौर भिनगाई
शुक्रिया (उ०प्र०)