ग़ज़ल
रिश्ता भी आज दिल से निभाता नहीं कोई
दिल में छुपे हसद को मिटाता नहीं कोई
ख़ुशियाँ अमीरों की है ज़माने में इसलिए
मुफ़लिस को महफ़िलों में बुलाता नहीं कोई
इंसानियत तो भूल गया जैसे आदमी
भटके हुए को राह बताता नहीं कोई
मैं भी सुरूरे-इश्क़ में थोड़ा सा झूम लूँ
लेकिन लबों से जाम पिलता नहीं कोई
सहरा सी ज़िन्दगी है भटकती सराब में
ये प्यास मुद्दतों की बुझाता नहीं कोई
दुनिया कमा रही है फ़क़त मालो-जर यहाँ
बस इक वफ़ा ख़ुलूस कमाता नहीं कोई
दिल की ज़मीं पे लग चुके नफ़रत के जो शजर
“प्रीतम” वो बढ़ रहे हैं गिराता नहीं कोई
प्रीतम राठौर भिनगाई
श्रावस्ती (उ०प्र०)