ग़ज़ल
212 212 212 212
“देखते-देखते
जल रहा है मकाँ देखते-देखते।
मिट गया आशियाँ देखते-देखते।
फ़ासले हो गए दूर हम से गए
हो गया दिल धुआँ देखते-देखते।
था भरोसा दगा वो हमें दे गए
रह गया बागवाँ देखते-देखते।
था ठिकाना कभी वो गये छोड़के
मिट रहे हैं निशाँ देखते-देखते।
ग़मज़दा हो गए छिन गया दिल सुकूं
चल दिया कारवाँ देखते-देखते।
आशिकी ज़िंदगी का कफ़न बन गई
लुट रहा है जहाँ देखते-देखते।
मौत सीने लगा चार काँधे चढ़े
रो दिया आसमाँ देखते-देखते।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर