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18 Aug 2022 · 4 min read

*आध्यात्मिक लेख*

आध्यात्मिक लेख
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संसार में रहो लेकिन संसार के होकर नहीं
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जब व्यक्ति ने संसार में जन्म लिया है तो संसार में रहना तो उसकी नियति है। वह इससे बच नहीं सकता। किंतु विचारणीय प्रश्न यह है कि संसार में रहने का अवसर प्रकृति ने हमें क्यों दिया है ? क्या केवल संसार के सुख-भोंगों में व्यस्त रहना ही इस जीवन का ध्येय है ? संसार में लिप्त हो जाना तथा मनचाही वस्तुएँ मिलें तो प्रसन्न होना और कुछ भी हमारी इच्छाओं के विपरीत चल रहा है तो हम दुखी और क्रूद्ध रहने लगें, क्या इसी का नाम जीवन है ?
जब हम संसार में चारों ओर दृष्टिपात करते हैं और मनुष्य के जीवन को देखते हैं तो दुर्भाग्य से यही अटपटी स्थिति हमें नजर आती है । लोग अधिक से अधिक धन-संपत्ति एकत्र करने की होड़ में लगे हुए हैं। अधिक से अधिक सुख के भौतिक साधनों में व्यस्त हैं । सांसारिक पदार्थों के उपभोग को ही वह सुख का पर्यायवाची भी मानते हैं। उनका जीवन केवल उनका शरीर और उस शरीर को मिलने वाले सुख का ही पर्यायवाची बनकर रह गया है । मैं ,मेरा धन, मेरा भवन ,मेरी पत्नी ,पुत्र ,पद ,उपाधियाँ और सम्मान-पत्र इन सब की परिधियों में वह एक कैदी के समान जीवन व्यतीत करते हैं । कुल मिलाकर वह संसार में संसार के कैदी बन चुके हैं । उनके पास संसार से हटकर सोच-विचार करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है । शरीर से अतिरिक्त किसी चेतना के अस्तित्व पर उनकी निगाह ही नहीं गई है। अंततोगत्वा एक दिन वह इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं क्योंकि संसार किसी के पकड़ने से पकड़ में नहीं आ सकता।
हजारों वर्षों का इतिहास साक्षी है कि इस संसार को कितना भी मुट्ठी में बंद कर के रखो ,अंत में खुली हथेलियों के साथ ही व्यक्ति को इस संसार से जाना पड़ता है।
तो जीवन का और जीवन के वास्तविक आनंद का रहस्य क्या है ? यह खुली हथेलियों में निहित है । जिसने मुट्ठी बाँध ली और अंत तक बाँधे रहा ,वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में न इस संसार को जान पाता है और न स्वयं से परिचित हो पाता है । लेकिन हथेली खोलकर संसार में विचरण करने से हम संसार में तो रहते हैं लेकिन संसार के होकर नहीं रहते । संसार की कोई भी वस्तु हमारे आनंद का आधार नहीं होती । वह हमें मिल जाए तो भी ठीक है न मिले तो भी ठीक है और मिलने के बाद हमारे हाथ से चली जाए तो भी ठीक है। अर्थात हर परिस्थिति में हम इस जीवन को एक खेल की तरह खेलते हैं। इसमें जीत और हार का महत्व नहीं है । यह संसार तो एक लीला की तरह अथवा एक खेल की तरह हमारे सामने आता है । हम अपनी भूमिका का निर्वहन करते हैं और उसके बाद हँसते – मुस्कुराते हुए मंच से विदा ले लेते हैं। एक क्षण के लिए भी अगर हम अपने को संसार से अलग करके देखना शुरू करें तो हमारी मनः स्थिति में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है । संसार का छोटा सा रूप हमारा शरीर है। जिस क्षण हम शांत भाव से पालथी मारकर अपने भीतर एकांत उपस्थित करके बैठ जाते हैं ,उस क्षण हम संसार में रहते हुए भी संसार में नहीं रहते। वास्तव में यही वह अद्वितीय क्षण होते हैं जब हमारे भीतर आत्मसाक्षात्कार का स्वर्णिम प्रभात उदय हो सकता है । यह एकमात्र ऐसा अवसर होता है जब हम स्वयं को जान पाते हैं और उस विराट सत्ता से अपना तादात्म्य स्थापित कर सकते हैं जो सब प्रकार के आकार से परे है । जिसे इंद्रियों से न देखा जा सकता है न छुआ जा सकता है न सुना जा सकता है । केवल महसूस किया जा सकता है । उसकी उपस्थिति इस ब्रह्मांड में तभी हमारी समझ में आ सकती है जब हम संसार में रहते हुए भी संसार के होकर न रहने की साधना की ओर अग्रसर हों।
किसी भी नाम से पुकारें, भाषा कोई भी हो, देश प्रांत जलवायु भिन्न भिन्न हो सकती है ,हमारे द्वारा पहने जाने वाले वस्त्रों का प्रकार विविधता लिए हो सकता है लेकिन यह भीतर की साधना अपने आप में शब्दों से परे की साधना है । मौन की साधना है और इसमें जो संगीत फूटता है वह हमें इस संसार में रहते हुए प्राप्त तो होता है लेकिन वह संसार से परे का एक अनुभव जान पड़ता है । इस दिव्य अनुभव को जानना ही मनुष्य के जीवन का ध्येय है ।
संसार अनेक प्रकार के रहस्यों से भरा हुआ है । उन रहस्यों की खोज कभी हम पर्वतों पर चढ़कर ,तो कभी नदियों और समुद्रों की दूर-दूर की यात्रा करके किया करते हैं । एक देश से दूसरे देश ,जंगलों में कभी भटकते हैं ,कभी निर्जन में वास करते हैं ,तो कभी भीड़ और मेलो में हम उस रहस्य को जानने का प्रयास करते हैं जो जीवन का वास्तविक सौंदर्य है। यह रहस्य जो संसार में रहते हुए ,संसार के बीच रहते हुए और संसार में घुल-मिलकर विचरण करते हुए हमें प्राप्त होते हैं ,अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है । संसार से भागना जीवन का उद्देश्य न कभी हुआ , न कभी होगा। संसार में रहकर सब प्रकार के वातावरण, परिस्थितियों और उपलब्धताओं से अलिप्त रहते हुए जीवन जीना ही वास्तव में जीवन का वास्तविक सौंदर्य है । कठोपनिषद में यमराज भाँति-भाँति के सांसारिक प्रलोभन नचिकेता को देते हैं लेकिन नचिकेता उन सब को ठुकरा कर यही कहता है कि मुझे तो अमरत्व का ज्ञान ही प्राप्त करना है । अंत में अपनी दृढ़ निष्ठा से वह उस रहस्य को प्राप्त कर लेता है जो मनुष्य-जीवन का सच्चा ध्येय है । नचिकेता-सी निष्ठा ही हमें संसार में रहते हुए धारण करने की आवश्यकता है।
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लेखक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा,
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
Email raviprakashsarraf@gmail.com

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