ग़ज़ल
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“भूल नहीं पाते हैं”
दर्द को छुपा जग से होंठ मुस्कुराते हैं।
बेवफ़ा सनम हमको नींद में सताते हैं।
याद जब करूँ लम्हे टूट कर बिखर जाती
कोसकर जवाँ मौसम अश्क छलक जाते हैं।
होश में रहूँ कैसे होश मैं गँवा बैठी
चैन ,अमन लूटा मेरा बात अब बनाते हैं।
दरमियां रहें न दूरी कोशिशें बहुत की थीं
बेखुदी जता अपनी फ़ासले बढ़ाते हैं।
चाहतें हमारी थीं साथ हम निभाएँगे
बाँह गैर की थामे आँख वो चुराते हैं?
उठ रही कसक दिल में छा रहा धुआँ सा है
हसरतें मिटा मेरी ख्वाब वो जलाते हैं
बेरहम सितमगर ने दिल मिरा दुखाया है
मानकर खुदा उनको भूल नहीं पाते हैं।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’