ग़ज़ल
जो महलों में है जन्मा झोंपड़ी का दर्द जाने क्या।
हैं धन की गर्मियांँ जिनको हवाएं सर्द जाने क्या।
पगों में चुभते कांटे औ भरे हैं धूल से चेहरे
ये धन्ना सेठ हैं राहों की उड़ती गर्द जाने क्या।
जिन्होंने न कभी देखा गुबार धूल और धुआं
वो मिट्टी को क्यूँ पहचाने भला वो कर्द जाने क्या।
हैं जिनसे दूर दुख और न पड़ा पाला अज़ाबों से
अजी ग़म से पड़े हैं कितने चेहरे ज़र्द जाने क्या।
है हरदम जां निछावर तुझ पर चाहे रात हो या दिन
मौसम और रुत बदलने को कोई हमदर्द जाने क्या ।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना
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