ग़ज़ल
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काफ़िया- आर
रदीफ़- हो जाना
बहुत महँगा पड़ा मुुझको सनम से प्यार हो जाना।
मुहब्बत में खुला व्यापार -औ-अख़बार हो जाना।
निगाहें जब मिलीं उनसे नज़र में बेरुख़ी आई
समझ पाई नहीं मैं इश्क में तकरार हो जाना।
नहीं चाहा कभी सुनना समझना बात को मेरी
बड़ा आसान समझे प्यार में तलवार हो जाना।
लगाकर तोहमतें मुझ पे किया बदनाम महफ़िल में
सहूँ कैसे बताओ तुम जिगर पे वार हो जाना।
चलाकर तीर तानों के मिटा दीं हसरतें मेरी
नहीं भाता किसी भी हाल में मझदार हो जाना।
नमक छिड़का किए उन पर दिए जो ज़ख्म उल्फ़त में
सताता है हमें दिन-रात उनका ख़ार हो जाना।
फ़ना अरमान कर डाले धुआँ अब भी बकाया है।
भुलाए से नहीं भूली कभी बीमार हो जाना।
अँधेरी रात तन्हाई रुलाती बेबसी मुझको
नहीं मंजूर मुझको ज़िंदगी दुश्वार हो जाना।
यकीं कैसे करे ‘रजनी’ चलें वो साथ गैरों के
अजब है कशमकश दिल में चला एतबार जाना है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी(उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर