ग़ज़ल- हूॅं अगर मैं रूह तो पैकर तुम्हीं हो…
मैं ज़मीं प्यासी मेरे अंबर तुम्हीं हो
हूॅं अगर मैं रूह तो पैकर तुम्हीं हो
प्यार की इक़ बूंद तुम सागर तुम्हीं हो
दिल के अंदर भी तुम्ही बाहर तुम्हीं हो
इश्क़ की हो शम्’अ तुम अनवर तुम्हीं हो
धड़कनों में हो तुम्हीं दिलबर तुम्हीं हो
चाहते मुझको हज़ारों इस ज़हां में
झाॅंक लो दिल में मेरे भीतर तुम्हीं हो
रुख़ से अपने अब़्र की चादर हटा दो
सर्दियों के वास्ते बेहतर तुम्हीं हो
मखमली बिस्तर नहीं चादर न कंबल
अपने नीचे भी तुम्हीं ऊपर तुम्हीं हो
जीभ अपनी कोहनी छूने को तरसती
हो मेरे नज़दीक पर दूभर तुम्हीं हो
फ़त्ह मंजिल एक दिन कर के रहूॅंगा
‘कल्प’ की हो राह तुम रहबर तुम्हीं हो
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’