ग़ज़ल (सिर्फ़ मरते हैं)
सिर्फ़ मरते हैं यहाँ हिन्दू, मुसलमाँ या दलित ,
अब किसी भी जगह पर मरता नहीं है आदमी ।
बँट गए अब तो स्वयं भगवान कितनी जात में ,
अब सभी की अर्चना करता नहीं है आदमी ।
धर्म, जाति और भाषा के लिए लड़ता है ये,
जान लेने में भी अब डरता नहीं है आदमी ।
अपने ऊपर आए संकट, तो सभी हरते पर –
देश पर दुःख आए तो, हरता नहीं है आदमी ।
दिख रहा है देश टूटा, धर्म में औ’ जात में ,
किन्तु फ़िर भी देख ये, सुधरता नहीं है आदमी।
रोज़ ही इंसानियत की लाश मिलती हैं यहाँ,
जात मरतीं, धर्म मरते, मरता नहीं है आदमी ।
— सूर्या