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27 Aug 2021 · 1 min read

ग़ज़ल : ( साथ-साथ चलता हूॅं )

ग़ज़ल : ( साथ-साथ चलता हूॅं )
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एक कदम तुम बढ़ो, एक कदम मैं बढ़ता हूॅं ।
इस रहस्यमई जीवन में साथ-साथ चलता हूॅं।।

क्या पता, किस मोड़ पे कब क्या हो जाए ।
यही सोच – सोच कर मैं तो सदैव डरता हूॅं।।

राहों में हर जगह तो ठोकरें ही ठोकरें हैं ।
जिससे चाहे, अनचाहे सदैव मैं लड़ता हूॅं।।

काॅंटे जो चुभ जाते पैरों में मेरे जहाॅं – तहाॅं।
उस चुभन के दर्द तो हर पल ही सहता हूॅं ।।

ये ज़िंदगी तो है ही नदी की धार की तरह ।
जिसमें अनवरत यूॅं ही दिशाहीन बहता हूॅॅं ।।

जीवन के इस रहस्य को तू जान लो “अजित” ।
संभल-संभल के चलने को सबसे ही कहता हूॅं।।

स्वरचित एवं मौलिक ।

अजित कुमार “कर्ण” ✍️✍️
किशनगंज ( बिहार )
दिनांक : 27-08-2021.
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