ग़ज़ल सगीर
उम्र के मोड़ पे इस पीर का रोना आया।
अब बुढ़ापे में इस तकदीर पे रोना आया।
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काम था जिसको मिला मुल्क की हिफाज़त का।
उसकी टूटी हुई शमशीर पे रोना आया।
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सारे रिश्तों को भुला रखा था जिसकी खा़तिर।
अब बुढ़ापे में उस जागीर पे रोना आया।
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मुंतज़िर हो के गुजा़रा है मैंने लम्हों को।
लौट कर आया तो ताखी़र पे रोना आया।
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जो मुझे छोड़ गया है यहां पागल कह कर।
ऐ “सगी़र” उसकी इस तक़सीर पे रोना आया।
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शब्दार्थ_
हिफाजत= सुरक्षा
शमशीर= तलवार
मुंतजिर= इंतजार,
ताखी़र= देरी
तक़सीर = भूल चूक