बिन तिरे इक कमी रही बरसों – संदीप ठाकुर
बिन तिरे इक कमी रही बरसों
दुनिया वीरान सी रही बरसों
चाँद बस एक पल रुका लेकिन
मेरे घर चाँदनी रही बरसों
अश्क छलके नहीं कभी लेकिन
आँख में कुछ नमी रही बरसों
बे-क़रारी उदास बिस्तर पर
सिलवटें डालती रही बरसों
मुद्दतों पहले पेड़ सूख गया
फिर भी कुछ छाँव सी रही बरसों
तेरी ख़ुशबू न ला सके झोंके
मेरी खिड़की खुली रही बरसों
तेरे जाने के बा’द भी तुझ को
बेबसी सोचती रही बरसों
अपने टूटे हुए किनारों को
इक नदी ढूँढती रही बरसों
संदीप ठाकुर