ग़ज़ल:- शक़ नियत पर अब ज़रा होने लगा…
शक़ नियत पर अब ज़रा होने लगा।
सोना बन पीतल खरा होने लगा।।
मुफ़लिसी में छोड़ देते थे कभी।
अब निमंत्रण भी झरा होने लगा।।
कैसे जिंदा हम रहेंगे ये ख़ुदा।
आदमी पैदा मरा होने लगा।।
कैसा संचय कैसा विनिमय क्या करूं।
उल्टा बर्तन जब भरा होने लगा।
या ख़ुदा तेरे फ़ज़ल से अब मेरा।
खेत सूखा था हरा होने लगा।।
बेटे काबिल ‘कल्प’ मेरे हो गये।
बाप को अब आसरा होने लगा।।
✍ अरविंद राजपूत ‘कल्प’