माँ
मेरी मां हैं जो हमेशा मुझमें जिया करतीं हैं
वो शज़र बनके मुझे छावँ दिया करती है
माँ की सूई तो नुकीली भी नही होती कभी
जाने कैसे वो ये रिश्तों को सिया करती हैं
हम पे खुशियां सब लुटाकर जी लेती है हर घड़ी
मस्त रहतीं और सारे ग़म पिया करती है
आंच आने भी न देती ज़ख्म की क्या बात है
ढाल बनकर वो बलाएं भी लिया करती है
मां की ममता का लगें अहसास गहरा है मुझे
यूं लगें हर पल इशारा वो किया करती है
त्याग की मूरत है माँ जग नें भी ये माना यहां
श्रेष्ठ होने का न वो जग में रिया (दिखावा) करती है
ख़ुद से भी ज्यादा कँवल रखतीं हैं घर का ध्यान माँ
रौशनी घर में करें जैसे बया(एक पक्षी)करती है
बबिता अग्रवाल कँवल
सिल्लीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)