ग़ज़ल – फितरतों का ढेर
कलम की यह धार देखो।
मचाती ललकार देखो।
जमाने ने ली बदल फितरत ,
मची हाहाकार देखो।
अगर मजहब का जिक्र है,
मिरे दिल में प्यार देखो।
नकाबों के इस शहर में,
वफा की है हार देखो।
बनानें में नाश में भी,
जनों का किरदार देखो।
सियासत के दौर में तो,
गले पर तलवार देखो।
वतन में क्या हो रहा है,
अभी का अखबार देखो।
‘ मुसाफिर ‘ इस नाव की तो,
गयी टूट पतवार देखो।।
रोहताश वर्मा ‘मुसाफ़िर’