ग़ज़ल:- पिता
मिट न जाये छांव मेरी धूप में चलता रहा।
क़द बड़ा हो जाए उसका सूर्य सा ढलता रहा।।
ये अंधेरा कब निगल ले प्यारी सी परछाईं को।
रात भर इस ख्य़ाल से मैं दीप बन जलता रहा।।
राह में बाधा बहुत सी हैं मुलायम पग तेरे।
तू रहे अब्बल सदा कांधे पे ले चलता रहा।।
है धुॅंआं मेरी अगन का छू सके तू आसमाॅं।
जो रहे अस्तित्व तेरा आग बन जलता रहा।।
अब समय के साथ चलकर थक न जाये तू कहीं।
शुभ मुहूरत के बहाने वक़्त बन टलता रहा।।
तूं फले फूले जगत में तुझ में रस गुंजार हो।
चुन न ले कलियां कोई तो, सूल बन खलता रहा।।
हो प्रखरता सूर्य जैसी,चांद सा शीतल रहे।
भर नज़र देखे ज़माना, मेघ बन छलता रहा।।
मां दुआएं देती जिसको बाप जिसका हमसफ़र।
काल उसको छू सका कब हाथ ही मलता रहा।।
रात दिन तेरे लिए ही ‘कल्प’ करते हैं दुआ।
तू बुज़ुर्गों की दुआओं से सदा फलता रहा।।
✍️ अरविंद राजपूत ‘कल्प’