ग़ज़ल/नज़्म – शाम का ये आसमांँ आज कुछ धुंधलाया है
शाम का ये आसमाँ आज़ कुछ धुंधलाया है,
इसमें मेरे प्यार का ढ़का हुआ सा साया है।
बादलों की टोलियाँ बड़ी भागदौड़ हैं कर रहीं,
क्या इनमें यार का चेहरा सावन ने छुपाया है।
कोशिशें पुरजोर हैं बादलों में उसे खोजने की,
सामने बार-बार न जाने कौन-कौन आया है।
सावन तो बेदर्द इतना कभी होता ही ना था,
इसने लोगों का क्या बखूबी साथ निभाया है।
शाम को रोज़ छत पर वो नज़रें मिलाती थी,
क्या आज़ मेरी नज़रों ने धोखा सा खाया है।
आँखें बन्द करता हूँ तो भी वो दिखती ही है,
मैंने फिजूल ही सावन पे इल्ज़ाम ये लगाया है।
ज़माना ही दुश्मन होगा जब ये पता है तुझे,
उसकी मज़बूरी को क्यों तू समझ नहीं पाया है।
ज़माने की हवा चलेगी, आँधी बनेगी, धुंधलापन होगा,
पर क्या इन्होंने कभी आशिकों को हराया है।
प्यार को पंख लगा के बादलों के पार उड़ चल ‘अनिल’,
क्या याद करेगा प्यार को तू कहाँ से लाया है।
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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