ग़ज़ल/नज़्म – वो ही वैलेंटाइन डे था
एक दिन खुद में बड़ा सा मैं जहां जोड़कर आया था,
अपने दिल की धड़कनों का मैं आसमाँ जोड़कर आया था।
पास आने की मनुहार की थी हौले से हाथ छूकर किसी ने,
उसके माथे पर बहुत से अपने मैं निशाँ जोड़कर आया था।
उस मुलाकात में मौन उसका उसके अहसास बयाँ कर रहा था,
उसके थिरकते लबों से बोलती सी मैं दास्ताँ जोड़कर आया था।
चौदह फरवरी है, वैलेंटाइन डे है, दोस्त याद दिला रहे हैं मुझे,
उनको ख़बर है कि तारीखों का मैं कारवाँ जोड़कर आया था।
यूँ तो हर दिन ही अच्छा है पर वो दिन कुछ अलग ही था ‘अनिल’,
जो उसके दिल से अपना प्यार मैं जवाँ जोड़कर आया था।
(मनुहार = प्रार्थना, विनती, खुशामद)
(दास्ताँ = बीती बातें, विस्तार में वर्णन, कथा, कहानी, अफसाना)
(कारवां = काफिला, समूह, श्रृंखला)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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