ग़ज़ल/नज़्म – मैं बस काश! काश! करते-करते रह गया
मैं बस काश! काश! करते-करते रह गया,
और बार-बार ताश के पत्ते सा ढ़ह गया।
इज़हार-ए-प्यार ना कर पाया उससे कभी,
यूँ ही ज़माने की दुश्वारियों को सह गया।
उसके लबों से ही इक़रार का इंतज़ार रहा,
वो इशारा ही ना देखा जो बहुत कुछ कह गया।
मेरे हिस्से बिखरते गए रिश्तों में इस कदर,
कभी उनको जोड़ते, कभी गिनते रह गया।
हर शख़्स सामने आया एक तूफाँ बनकर,
हमारे प्यार में जैसे उसका सब कुछ बह गया।
आज़ जो साथ बैठे हम थोड़ा हौसला लेकर,
तो एक-एक लम्हा ही पूरी ज़िन्दगी कह गया।
(दुश्वारी = मुश्किल, कठिनता, दुरुहता, आपत्ति, मुसीबत)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
9783597507,
9950538424,
anilk1604@gmail.com