ग़ज़ल/नज़्म – मेरे महबूब के दीदार में बहार बहुत हैं
मेरे महबूब के दीदार में बहार बहुत हैं,
उसकी हर नज़ाकत में चमत्कार बहुत हैं।
उसके जज़्बात भले ही हैं अनकहे से पर,
उसकी झुकी पलकों में समाचार बहुत हैं।
उसके मौन की भाषा में लफ्ज़ अनगिनत,
उसकी ख़ामोशियों में छुपे इक़रार बहुत हैं।
उसके ख्वाबों-ख्यालों में तीरगी-ए-शब नहीं,
उसकी यादों से मेरी रातें गुलज़ार बहुत हैं।
उसके सजदे में आकर प्रेम तराने सुने हैं,
उसकी हल्की मुस्कान में मल्हार बहुत हैं।
उसके दिल की जमीं पर आशियाँ बन जाए,
उसकी गलियों में भले ही पहरेदार बहुत हैं।
उसके पहलू में रह कर खास हो जाऊँगा,
उसकी सोहबत के वास्ते लाचार बहुत हैं।
उससे पूरे मौहल्ले की रंगत ही अलग है,
उसकी गली में इसलिए किराएदार बहुत हैं।
उसके नाजों-नखरों में झूठापन कहीं नहीं है,
उसकी शोखियों के चर्चे सरे बाजार बहुत हैं।
उसके ज़माने से हस्तियाँ ही कम हो गई हैं,
उसकी मौजूदगी के होते इश्तहार बहुत हैं।
उसके इश्क़ समन्दर में मोती मिलते बहुत हैं,
उसकी सीपियों में प्यार के भण्डार बहुत हैं।
(नजाकत = नाज़ुक होने का भाव; सुकमारता, स्वभावगत कोमलता; मृदुलता, नाज़ुकमिज़ाजी , सूक्ष्मता; बारीकी)
(मल्हार = बारिश, वर्षा, सुनने में आता है कि तानसेन के “मियां के मल्हार” गाने से सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी बारिश हो जाती थी)
(सजदा = सिर झुकाना, प्रणाम करना)
(गुलज़ार = आबाद, खिला हुआ, प्रफुल्ल, फूलों का बगीचा)
(पहलू = बगल, पार्श्व, बल, करवट, नज़रिया, दृष्टिकोण)
(सोहबत =संगति, साथ, संग, समागम)
(तीरगी = अंधेरा, अंधकार, स्याह)
(शब = रात, रात्रि, निशा)
(तीरगी-ए-शब = रात का अंधकार)
(शोखी = चंचलता, नाज़-नखरा, रूप का अभिमान)
(इश्तहार = घोषणा: एलान, विज्ञापन, सार्वजनिक सूचना)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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