ग़ज़ल/नज़्म – मुझे दुश्मनों की गलियों में रहना पसन्द आता है
मुझे दुश्मनों की गलियों में रहना पसन्द आता है,
मुझे तेरे नाम से उनका गाली देना पसन्द आता है।
एक तू ही तो है जिसे मैं तनहाईयों में भी सुनता हूँ,
वरना मुझे कहाँ औरों को भी सुनना पसन्द आता है।
हम मौत की शैय्या पर होंगे तो तेरा दीदार तो होगा ही,
वरना कहाँ किसी को शमशान जाना पसन्द आता है।
बदनामी-वदनामी तो महज़ अल्फाज़ हैं कुछ मनगढ़ंत,
जुबानों पर हमारी ही सुगबुगाहट होना पसन्द आता है।
अपने लबों से तू कुछ बोले ना बोले हर्ज़ नहीं है मुझे,
तेरे होंठों पे हंसी और पलकें झुकी होना पसन्द आता है।
बहुत सी बातें बोलती हैं उठती-झुकती नज़रें तेरी,
और चलते-चलते से तेरा ठिठक जाना पसन्द आता है।
पता है कि कुछ कच्चे हैं हम अभी ज़माने की फितरत से,
पर मुझे हमारा उन्हें रास ना आना पसन्द आता है।
दुश्मन सकपका से जाते हैं तेरी गली में मेरे जाने से,
उनका मुझे हराने को चक्रव्यूह बनाना पसन्द आता है।
अहंकार के कितने भी बड़े झूमर हों उनकी हवेलियाँ में ‘अनिल’,
मुझे मेरे कच्चे घर में तेरा आना-जाना पसन्द आता है।
(शैय्या = सेज, खाट, पलंग, बिस्तर)
(अल्फाज़ = शब्द, शब्द समूह)
(मनगढ़ंत = काल्पनिक, असत्य, तथ्यहीन, मिथ्या, मन द्वारा गढ़ा हुआ)
(सुगबुगाहट = कुलबुलाहट, बेचैनी, आतुरता, धीमी आहट, आंतरिक व्याकुलता)
(हर्ज़ = हानि, नुकसान, अड़चन, रुकावट, बाधा)
(सकपकाना = दुविधाग्रस्त होना, घबराना, चकित होना, असमंजस में पड़ना)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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