ग़ज़ल/नज़्म/मुक्तक – बिन मौसम की बारिश में नहाना, अच्छा है क्या
बिन मौसम की बारिश में नहाना, अच्छा है क्या?
सच को झूठ से आईना दिखाना, अच्छा है क्या?
देश और अवाम वास्ते हो सियासत, तो अच्छी लगे,
हाकिम का अवाम को उल्लू बनाना, अच्छा है क्या?
हमेशा नज़रंदाज़ करता हूँ जो मैं, अपने गिरेबाँ को,
फिर मेरा हर तरफ़ उंगली उठाना, अच्छा है क्या?
बड़ी आसानी से इल्ज़ाम लगाता है वो, बेवफाईयों के मुझ पे,
उसका मजबूरियों में मुझे आजमाना, अच्छा है क्या?
माना कि मेरा हालातों से युद्ध है तो है, क्या शिकवा,
पर मेरे दुश्मन से तेरा हाथ मिलाना, अच्छा है क्या?
मैं जानता हूँ के मेरी शिकस्त मुकर्रर है, प्यार में,
ऐसे में ज़माने आगे मेरा गिड़गिड़ाना, अच्छा है क्या?
यार की आगोश के दो पल जो, मयस्सर हैं तुझे ‘अनिल’,
तो दूसरी जन्नत वास्ते हाथ फैलाना, अच्छा है क्या?
(मुकर्रर = निश्चित, निर्धारित इकरार किया हुआ, नियुक्त, नियत, अनुबंधित)
(मयस्सर = मिलना, प्राप्त होना, उपलब्ध होना, सुलभ होना)
©✍🏻 स्वरचित
अनिल कुमार ‘अनिल’
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