ग़ज़ल – दोहरा के देखा था
इक किस्सा यूँ दोहरा के देखा था
तुमको फिर आजमा के देखा था
फिर न हँसने में वो मज़ा ही रहा
मैंने हर ग़म भुला के देखा था
दिल से उठने लगा जाने क्यूँ धुँआ
इक तेरा ख़त जला के देखा था
ज़िंदा रहने को ज़मीं बेहतर लगी
चाँद के पास जा के देखा था
हो के तन्हा भी मैं खोई तो नहीँ
वक़्त ने हाथ छुड़ा के देखा था..
इश्क़ देता है किस तरह दग़ा
ये तेरे पास आ के देखा था…
सुरेखा कादियान ‘सृजना’