ग़ज़ल:::::इश्क़
बहर ::: 2122 2122 2122
इश्क़ वालों को कभी, सुनता नहीं है,
इश्क़ मंजिल, और कुछ दिखता नहीं है ।
जिस्म से तो दो नजर आते हैं, लेकिन,
एक ना हो तो, कुछ बचता नहीं है।
ग़र खिलाफ़त में, ज़माना भी खड़ा हो,
इश्क़ है साहब, कभी झुकता नहीं है ।
मौत चाहे सैकड़ों भी मुकर्रर हों,
ये मुस्तक़िल रहता है, मरता नहीं है ।
ये वो शोला है, जो पानी में हमेशा
बस सुलगता रहता है, बुझता नहीं है ।
मोहब्बत के दुश्मनों, चीखो चिल्लाओ,
फ़ायदा क्या, ये इश्क़ सुनता नहीं है ।
जिस्म ही तो मार सकता है ज़माना,
रूह में है ज़ालिम, ये मरता नहीं है ।
संजीव सिंह ✍
नई दिल्ली