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23 Feb 2019 · 1 min read

ग़जल

नज़र के तीर से घायल यहाँ हर दिल धड़कता है।
बना गिरगिट जहां में आदमी फ़ितरत बदलता है।

समंदर आँख में गहरा मगर है तिश्नगी बाकी
बसा शैतान को घर में यहाँ ईमान बिकता है।

कभी मंदिर कभी मसजिद किया है शान से सजदा
पहन खूनी लिबासों को दरिंदा क्यों मसलता है?

चले जब काफ़िला लेकर कफ़न बाँधे मुहोब्बत का
उजाड़ी प्यार की बस्ती कलेजा क्यों दहलता है?

ठिठुरती सर्द रातों में बहाते अश्क देखे हैं
ग़मों की आग में जलकर यहाँ हर दिल सुलगता है।

ज़मीं ज़न्नत हमारी है यही काशी यही काबा
सिसकती मातृ से पूछो ये दामन क्यों महकता है?

गुज़ारे हैं कई पतझड़ यहाँ मधुमास में हमने
जतन कितने किए लेकिन नहीं सावन बरसता है।

डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
महमूरगंज, वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका-साहित्य धरोहर

1 Like · 307 Views
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