गले की फांस रिस्तेदार
गले की फांस रिस्तेदार
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मन मे है कसक,
दूर नही हो रही है ठसक,
ये कैसी हैं रिश्तेदारियाँ,
नहीं समझती मजबूरियाँ,
करती रहती मौके की तलाश,
पूर्णरूप से करती हैं हताश,
गले की फांस रिस्तेदार,
झूठे है रिस्तों के पहरेदार,
बीच मे अड़ाते सदा टांग,
बनावटी होता उनका राग,
खामख्वाह छेड़कर पंगा,
कर देते हैं समाज मे नंगा,
नहीं छोड़ते हैं कोई कसर,
तोड़ देते है मिलकर कमर,
मीठा बनकर लेते हैं पहले भेद,
पीठ पीछे करते रहते सदा छेद,
चुगली,निंदा के होते हैं शौकीन,
करते रहते दर दर पर तौहीन,
दिखाते सदैव खुद को अपना,
पर तोड़ देते हैं जीवन का सपना,
अपनों से कहीं बेहतर हैं गैर,
कम से कम गिरने नही देते पैर,
विपदाओं में नहीं रखते दूरी,
जो समझते हैं मजबूरी,
नही रचते हैं कोई भी ढोंग,
नहीं देते कोई मानसिक रोग,
सदा अपने होते हैं बेगाने,
मनसीरत किसी न किसी बहाने….।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)