गऱीबी का गुनहगार
मुझसे क्यूँ नाराज़ हो, न मैं ये कोहराम लाया ।
छिना काम व मुँह का निवाला, फ़िर गुनहगार कहलाया ।
मिला नहीं अन्न का दाना, मैं भूख का सताया हूँ ।
मुझे गिला नहीं कोई, बच्चों की चीख़ से घबराया हूँ ।
हर तरफ़ चर्चा है मेरी, क्या मेरी वेबसी गुनाह है,
वैसे तो लूटती है अमीरी, ग़रीबों को यहाँ मिली सज़ा है ।
एक-एक पल किये इक्कट्ठे, रेत में फ़िर बिखर गए ।
सपने थे सोई आँखों के, सोते समय ही बिछड़ गए ।
है इतना अंतर यहाँ क्यूँ ,अमीरी और ग़रीबी में ।
“आघात” दिन गुज़ार ले, या जीना है सिर्फ़ फ़कीरी में ।