गर किसी मोड़ पर हम कभी फिर मिले
गर किसी मोड़ पर हम कभी फिर मिले
देख कर हम खुशी से गले फिर मिले
बैठ कर फिर बहुत देर तक यूँ रहे
जिस तरह से सफ़र में मुसाफ़िर मिले।
बात फिर ख़ूब हम इस तरह से करे
पास अपने खड़े ग़ैर-हाज़िर मिले।
तुम चलो हम चले दूर इतने कहीं
कि हमें हर जगह बस मुहाजिर मिले।
आ गई लो बिछड़ने की रुत फिर वही
जिस घड़ी हम कहे कब पता फिर मिले।
-जॉनी अहमद ‘क़ैस’