गर्दिश-ए-अय्याम
मै अकेला चला था इस सफ़र में
ना कोई हमराह , ना हम-सफ़र ,
मंजिल से बेख़बर इस आस में
कहीं तो पहुँचेगी ये डगर ,
राह में ठोकर खाकर कदम भटकते ,
कांटों की चुभन से पाँव घायल होते ,
फिर भी बढ़ता रहा लिये इक जोशे जुनूँ ,
शायद किसी मंज़िल पर पहुँच मिल जाये सुकूँ ,
मुझे ये इल्म़ न था गर्दिश -ए-अय्याम में
सुकूँ हासिल नही होता ,
आदमी कुदरत के हाथों की कठपुतली होता है ,
अपने मुस्तक़बिल का ख़ुद मालिक नही होता।