गरीब जैसे कूड़े के ढेरों
गरीब जैसे कूड़े के ढ़ेर
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कुड़े के ढेर सा होता है,
गरीबों का जनजीवन,
जैसे अवांछित सामग्री,
और शेष अवशेष गंदगी,
जमा होती रहती है सदैव,
और बढ़ता ही रहता है,
बड़ा सा कूड़े का वो ढ़ेर,
बिल्कुल ठीक उसी तर्ज पर,
अमीरो का बचा खुचा खाना,
मिलता भी उनको जिनको पहचाना,
रईसजादों से खैरात में मिले हुए,
फटे पुराने पहन के छोड़े वस्त्र,
और घिसे हुए उनके चमड़े के जूते,
जब नये उनके पैरों में पहने होते है,
बात बात पर पड़ते हैं उन्हीं के सिर,
और पुराने हो जाने पर वही जूते
आ जाते हैं मैले कुचेले पैरों में,
कम करने के लिए शीतलहरों की ठंड,
ताकती रहती हैं सूखी और सुर्ख आँखें,
कब मिल जाएंगे उनको भीख में,
साहिब के फहने हुए जूते और वस्त्र,
गरीबी में गरीबों से दूर हो जाते हैं,
उनके अपने और उनके बेहद करीबी,
नहीं समझते गरीबों की उपासना,
और मनसीरत सदैव रंक रहते हैं,
दयनीय और असहाय,
और वही ढ़ाक के तीन पात……..।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)