गरीबों की दीपावली
नन्हीं उंगलियों को थामकर ,
एक मां ने अपने बच्चे को पास बिठाकर।
दीपों की टोकरीओं को सामने रखकर,
ग्राहक आने की आस लगाकर।
बैठी है अनिश्चित होकर ,
क्योंकि बड़े-बड़े दुकानों में है भीड़ जमकर।
विदेशी -चाइनीज सामान खरीदकर ,
सभी निकल रहे हैं बाहर।
मिट्टी से बने उन दीपो को देखकर ,
एक आदमी कुछ देर रहा ठहरकर।
“बड़ी वाली कितने पैसे के हैं “? कहा अकड़कर ,
“सिर्फ इतने ही”!महिला बोली उंगलिया दिखाकर।
“अरे इतने ज्यादा”!!ग्राहक ने कहा तुनककर ,
चला गया फिर दूसरी दुकान ढूंढकर।
टोकरी खाली हुई सारा दिन ढलकर ,
महिला ने पैसों को लिया समेटकर ।
कुछ सोचने लगी तभी बच्चे ने कहा लिपटकर ,
मां क्या हम दिवाली मना पाएंगे इन पर ।
हां मनाएंगे हम मिठाई खरीदेंगे दुकान जाकर ,
उठ खड़े होकर दोनों जाने लगे अपने घर।
पास में बैठा वृद्ध भी है आस लगाकर ,
शायद उसका भी दीप बिके कुछ दिनों के अंदर।
वह भी अपने परिवार के लिए मिठाई खरीदकर ,
जाएगा फिर अपने घर पर।।
———-उत्तीर्णा धर