गणपति विसर्जन या धर्म का उपहास
कैसा यह त्यौहार हुआ,
हिन्दू खुद शर्मसार हुआ।
खंडित हुई सारी मूर्तियाँ,
आस्था पर ये प्रहार हुआ।
कोसते थे औरों को हम,
पर हिन्दू खुद लाचार हुआ।
बड़े चाव से मनाया गणपति,
खूब सजा खूब श्रृंगार हुआ।
फिर बहा दिया सागर में,
जैसे वो हम पर भार हुआ।
सोचा ना एक पल को भी,
कैसा बाद में व्यवहार हुआ।
पैरों के नीचे आई ये मूर्तियाँ,
धर्म पर अपने ये वार हुआ।
गणपति खुश हुए या नाराज,
ना इस बात पर विचार हुआ।
लोगों में आई नहीं जागृति,
सुलक्षणा लिखना बेकार हुआ।
©® डॉ सुलक्षणा अहलावत