गठरी
एक बुजुर्ग सिर पर गठरी उठाये बढ़ा आ रहा था
हैरान थे मंत्री जी जैसे उनका कद घटा जा रहा था
गठरी थी तो कागजो की पर बम से ज्यादा डर था
हर कागज सरकारों को लिखा गया प्रार्थना पत्र था
बारह साल हो गए उसके घर का चिराग लापता है
कौन बताये उसे कि बूढ़ा बाप हर कदम हाँफता है
साहब बड़ी उम्मीद सेे आपके दरबार में आया हूँ
साथ काम किया कभी दिन याद दिलाने आया हूँ
ये चेहरा बुझा सा ना था पैरों में दम हुआ करता था
आप प्रदेश मंत्री मैं मंडल महामंत्री हुआ करता था
अगर मेरा बेटा ना खोता तो मैं दर दर ना भटकता
ना ये हालात होते ना कोई अपना दामन झटकता
सुनते हैं न्याय है और कानून के हाथ लंबे होतेे है
जीवन छोटा है दिन इंतजार के कितने लंबे होते है
मंत्री जी बोले मरा मान लो सरकार सलाह देती है
सात साल होने पर तो पुलिस भी मरा मान लेती है
मैं तो मान लूँ साहब घर पर उसकी बूढ़ी माँ बैठी है
आज भी वो पागल उसके लिए खाना लिए बैठी है
आँसू तो सूख गए पर आँखे दरवाजे पर ही लगी है
उसका बेटा जरूर आएगा बस इसी धुन में लगी है
और भी शिकायतें थी मंत्री के पास समय न था
और भी फरियादी थे दरबार अकेले के लिए न था
यही सोच बुजुर्ग ने बेबसी की एक गहरी सांस ली
हाथ में जो थी एक और अर्जी वो ही आगे बढ़ा दी
किसी तरह उस बेचारी को भी मैं समझा ही दूँगा
मर गया हमारा बेटा कलेजे पर पत्थर रख ही दूँगा
मर गया है या मारा गया है वो ये भेद तो खुलवा दो
हत्यारे को सजा या फिर बेटे की लाश ही दिलवा दो
मंत्री के पास आस्वाशन के सिवा कोई जवाब ना था
कितना रोया कितना रोयेगा इसका भी हिसाब ना था
जाँच का आस्वाशन मीठे में लिपटा जहर दिखा था
जिसको ना निगला जा सका था ना उगलते बना था
कुछ और भारी हो चुकी गठरी को उठा वो चल दिया
आज फिर वही मिला जो किसी और ने था कल दिया
लड़खड़ाते क़दमों से वापस ना मुड़ता तो क्या करता
निराशा से घिरा सरकार को ना कोसता तो क्या करता
क्यों चुनते है हम सरकार क्या हक़ अधिकार हमारे हैं?
क्यों पिसता है गरीब क्यों अमीरों के कानून न्यारे है?
घर पर उम्मीद लगाए बैठी बेटे की माँ से क्या कहूँगा
रोकूँगा अपने आँसू या फिर उस अभागन के पोछूँगा
इसी उधेड़बुन में बेदम से शरीर को खींचे जा रहा था
खुद से भारी कागजो की गठरी को ढोए जा रहा था
कवि : सतीश चोपड़ा