गज़ल
रख सालिम अपने दीन-ओ-ईमान
बन इन्सान-ए-कामिल, अपना नेकी की राह
क्यूं पूछे है ? दीन-ओ-मजहब मीर का
खत्म कर सारी तू बंदिशे दैर की
कबूल ले तू हर मानव को उसके धर्म के साथ
रख इन्किसारी, इंसानियत का बीज लगा
बुलंदियाँ किसी काम की नहीं जनाब, ग़र
किसी दीन के आसूं तक ना पोछ पाए तुम।