गज़ल
1222………….122
मिरा कहना ….हुआ है!
वही घट भी ….गया है!
नहीं जो ……मानता है,
वही मिट भी …रहा है!
कि पानी आंख का भी,
तिरे मर सा …..गया है!
न निर्मम हो तु ….इतना,
तिरे अंदर……..दया है!
तु मंजर देख ….कर के,
लगा डर सा ….गया है!
कि जिसका खा रहा है,
उसे तड़पा ……रहा है!
बचा ले अपना …दामन,
कहाँ टकरा ….गया है!
न बच पायेगा् …तू भी,
बहुत इतरा ……रहा है!
तुझे कहते है्ं…….प्रेमी,
तु पत्थर बन …चुका है!
….. ✍ सत्य कुमार ‘प्रेमी’