गज़ल
चल रहे हैं कटीली् राहों में!
डालकर बांह उनकी् बाहों में!
मैं भी् रहता हूँ उसकी् आंखों मे,
वो भी् रहता मेरी निगाहों में!
जिसकी् खातिर गुनाह करता हूँ,
वो न शामिल हुआ गुनाहों में!
भस्म कर देगी् तेरे् महलों को,
इतनी् दम है मुफ़लिश की् आहों में!
रो रहा क्यों खुदा की् दुनियाँ में,
तू तो रहता है् उसकी् छांवों में!
सोचकर क्या शहर में आया तू,
क्या नहीं है हमारे् गांवो में!
प्यार करना तुझे तो् कर प्रेमी,
जिंदगी है तेरी पनाहों में!
….. ✍ सत्य कुमार ‘प्रेमी’