गज़ल : चाँद को भी गर आज़माएगी शब
चाँद को भी गर आज़माएगी शब
नींद हमको भी न आ पायेगी अब
सूरज से आँख मिलाकर क्या हाँसिल
रौशनी आँखों से लुट जाएगी अब
अँधेरे लाख पहरा कर लें हम पे
वो रात जुगनुओं वाली आएगी अब
बदमिजाज़ लहरों कि तहरीक
किनारों को ये बहुत सताएगी अब
कुछ झूठे-सच्चे ख्वाब दिखाकर
ज़िन्दगी फिर मुझे बहलाएगी अब
-विवेक जोशी “जोश”