गजल
सावन
है आतुर प्रियतम , सावन बन के बरसने को
जागे अरमाँ उसके , चाहत पे फिसलने को
हर श्रावण सूना है, जब पास न तू होता
यह नैन बसी नरमी , आकुल है सिमटने को
मैं दग्ध विरह में बैठी हूँ , कब आये पिय
जब लौट रहा तू , मैं तैयार सँवरने को
क्यों फैल रही लाली , रक्तिम इन होंठों पर
कौमार्य हुआ व्याकुल , रोज उजड़ने को
हर साँस समायी तुझमें , जीवन देने को
दिलदार हुआ है तेरा , रोज बिछड़ने को
तू बात बना ऐसे क्यों , आज लुभाता है
जज्बात सुलगते है , तेरे पे बहकने को
अब मीत गले लग जा , बदरा बन बरसो तुम
मेरी मन की बगिया , बैचेन रही मिटने को
भीगा तन -मन मेरा जब , बरस पडा सावन
हर रोम हुआ पुलकित , बैचेन किलकने को