गजल-३
काफिया-आते
रदीफ़-है
बहर-2122 12 12 22
“हक़ से हक़ छीन कर सताते है,
ये वफ़ा के अजीब नाते है।
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जब खलाओं में जश्न आते है,
इक दिए से भी जगमगाते है।
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चुन के माथे चढ़े या कदमों पे,
फूल अपना नसीब लाते है।
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की बगावत भंवर ने जब मेरे,
खुद को मझधार बीच पाते है।
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भूलते बार बार तुझको फिर,
खुद को तेरा मुरीद पाते है।
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हसरतें कम नहीं इन आँखों की,
क्या हुआ दर्द के अहाते है।
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दे गवाही मुझे तू है मेरा,
लोग तो साथ भी निभाते है।”
#रजनी