गजल सरहदें क्यों पहचानता नहीं तू
सरहदों को पहचाता नहीं क्यों तु भी परिंदा नादाँ
आज जमाने ने खड़ा कर दिया इस बात पे तूफाँ
दीवाना है या पागल औढ के मौत का कफ़न उड़े
नादाँ तुझ पर जहरीली हवा की है कुटिल मुस्कान
सरहद ना सही धर्म ही पहचान बना लेता अपनी
मंदिर की घण्टी बजती तो,कही खुदा की अजान
तेरी उड़ान एक दिन यादों का मंजर ही रह जायेगी
तेरे पर कतरने को तैयार खड़े है राम और रहमान
टूटेगी एक दिन तेरे दिल की कश्ती होश खोयेगा तु
झूमकर नाचेंगे सब तेरी लाश पर ले के तेरी जान
बहुत हिज्र मोब्बत से गुजरा है अब मायूस होगा
ना तो तेरा खुदा बचाये ना तुझको तेरा वो भगवान
अपनी तैयारी ऱख ज़माने के कठिन सवालों पर तु
उत्तर ना दे पाया तो भूलेगा अब उड़ना ऊँची उड़ान
होना है कत्ल तो ख़ुदकुशी क्यों करता तु भी प्यारे
दरिया की ठोकर से संवरजा मत हो वतन पे कुर्बान
कहता कवि अशोक आज तुझसे इल्ज़ाम मत देना
मंडियों में दाम वाजिब है पर बेचना नहीं तू ईमान
पूछेगा जो जमाना सवाल तान तुझसे ये बता देना
कह देना मेरी सरहदें नहीं होती मैं परिंदा हूँ नादाँ