गजल आया हूँ शहर में लेके कुछ किस्से नये पुराने
आया हूँ शहर में किस्से लेकर नये पुराने
परेशां चेहरों के लबों पर लाऊंगा मुस्काने
बख्शा खुदा ने हुनर तो कुछ बेचने आया
खरीद लो मेरे कीमती प्यार भरे अफ़साने
बेचैन मस्जिद सहमे शिवाले पुकार रहे थे
आजा परिंदे कटोरी में रखे तेरे लिये दाने
कहता मैं परिंदा खुदा से ,नराज तुझसे हूँ
पर कतर के तूने मुझे बक्शी कैसी उड़ाने
मैं परिंदा पिंजरे में कब भला पला बड़ा हूँ
मेरी तबाही का रस्ता मेरे यह ठौर ठिकाने
गर्म हवा मन्दिर से तो मस्जिदे है धुँआ धुआं
तू कैसा खुदा मदहोशी में बैठा जाकर मैखाने
देख मेरी आँखें आज नम है तेरे लिए मेरे खुदा
सबके हाथ में पत्थर और अशोक पर है निशाने
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से