गंगा
गीतिका
‘गंगा’
मात्रा भार-16, 11
1. भगीरथ अवनि से जा पहुँचे, स्वर्गलोक के द्वार।
देवभूमि से गंगा लाए, तारन को परिवार।
2. देख कठिन प्रण सुत दिलीप का, देव हुए तैयार।
तीव्र प्रवाह आज गंगा का, बना विकट आधार।
3.तप से हर्षित आशुतोष ने, जटा समाई धार।
पतित पावनी भू पर उतरी, जगत किया उद्धार।
4. कर निनाद हिमगिरि से बहती, हिमसागर के पार।
निर्मल, शीतल, वत्सल गंगा, देती सबको तार।
5. गिरती -उठती मृदुल भाव से, करे शृंखला पार।
अंचल धोकर वसुधा का यह, करती नव शृंगार।
6.सुख पाते आकुल जन थककर, पी जल बारंबार।
हरियाली वसुधा को देती, जीवन का यह सार।
7. दे सम्मान धरा पर इसको, त्यागो मलिन विचार।
दूर प्रदूषण को कर पाओ, अतुलित जल उपहार।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)