गंगा
माँ गंगा
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धोकर कितनों के तुम पाप
गंगा कैसे बनी सरल
वो गुण मुझे सिखा दो मां
कैसे बहती तुम अविरल।
यद्यपि मिली मलिनता से
पावन धारा मलिन हुई,
अहा शीश तुम हो शिव के
मानसरोवर नलिन हुई।
मिली अनेक कलुषताएँ
प्रेम बांटती हो निश्चल।
वो गुण मुझे सिखा दो माँ
कैसे बहती तुम अविरल।
अनेक कठोर शिलाएं भी
सुडौल हुईं वह टकराकर,
किंचित बहे बहुत दूर तक,
रुके शिव स्वरूप अपनाकर ।
बेध अनेक गिरि की छाती
बहती कैसे हो कल कल।
वह गुण मुझे सिखा दो माँ,
कैसे बहती तुम अविरल।
ब्रह्म कमंडल की शोभा,
मोक्षदायिनी बन आई ,
क्रूर हुआ मानव प्रतिपल,
फिर भी तुमने दया दिखाई ।
कैसे पीती कटु विष तुम
देती कैसे अमृत प्रतिपल।
वह गुण मुझे सिखा दो माँ
कैसे बहती तुम अविरल।
मिलते कितने नद नाले
कैसे गुणधर्म बचाती तुम
हिंसक और पापियों को,
हंस कर गले लगाती तुम।
भूली हो स्वर्गिक सुख को
पीती हो कैसे गरल।
वह गुण मुझे सिखा दो माँ,
कैसे बहती तुम अविरल।
अद्भुत सरल सहजता मां
मैं भी अपनाना चाहूं,
अनेक विकट पलों में मैं,
सुरसरि बन जाना चाहूं,
आशीष मुझे भी दे दो
यह जीवन हो ना निष्फल।
वह गुण मुझे सिखा दो माँ
कैसे बहती तुम अविरल।
धोकर कितनों के तुम पाप
गंगा कैसे बनी सरल
वो गुण मुझे सिखा दो माँ
कैसे बहती तुम अविरल।
~ माधुरी महाकाश