ख्वाहिशे
बिन बोले जब घर आऊंगा, तो तुम चौंक उठोगी,
इतने अरसे से जो तुझको, ऐ हमसफ़र नही देखा।
जबसे बिछड़ा हुँ तबसे, ख्वाबों में ही हुई गुफ़्तगू,
एक तेरे सिवा किसी को भी, भर नज़र नही देखा।।
यह सरेराह जो इतराते है, करें उनकी क्या कदर,
जिसने कभी समंदर से मोती, चुनकर नही देखा।
महलों में रहने वाले को, आशियाने का क्या पता,
अपने हांथो से घोषला जिसने, बुनकर नही देखा।।
यह विरासत के फूल उन्हें, कर दो मुबारक बदर,
जिसने गुलाबों से काँटें कभी, चुनकर नही देखा।
गर पत्थर तुम्हे लगता हूँ मैं, तो पत्थर ही रहने दो,
कोई शीशा कभी ‘चिद्रूप’ जैसा, टूटकर नही देखा।।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित ११/०२/२०१८ )