25. जी पाता हूँ
ख्वाबों की कश्ती लेकर
मैं जब दूर कहीं खो जाता हूं,
क्षितिज पर हर बार तुमसे
फिर भी मिल ही जाता हूँ।
काली ज़ुल्फ़ों में तेरी एक
मधुर सी बरखा होती है,
मैं धूसर मरुस्थल बनकर
तुझसे फिर धुल जाता हूँ।
उन लंबी रातों को मेरा तू
अनंत आकाश बन जाता है,
जब रास्ते तन्हा होते हैं
और तुझसे दूर चला आता हूँ।
कैसे कहूँ मैं धड़कन में
रोज़ तुम्हें ही सुनता हूँ,
तुम साँसों में ही रहते हो
इसलिए तो जी पाता हूँ।।
~राजीव दत्ता ‘घुमंतू’