खोये हैं हम
कैसी ये बात है कि
खोये हैं दोनों ही हम
तुम मेरे लफ़्ज़ों में और
मैं तुम्हारी आँखों में
वो दिन याद करते हैं
दोनों ही हम जब
वक़्त नापा नहीं जाता था
बस पलके झपकने पे
दिन रात बदल जाते थे
कभी बस साँसों की गिनती से
दिन दोपहर गिन लेते थे
अब मैं सांसें गिनता हूँ अपनी
जैसे अब सांस लेता ही नहीं
तेरी आँखों से अब मैं लौट आता हूँ
तेरे लफ़्ज़ों की पगडंडी पर
क्योंकि हम कुछ और सुनते नहीं
देखते नहीं क्या आस पास है
खोये हैं दोनों ही हम
तुम मेरे लफ़्ज़ों में और
मैं तुम्हारी आँखों में
–प्रतीक